‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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क्या संत समाज कि उपेक्षा कर रामराज्य संभव है?

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एक समय विश्व गुरु रहे और सोने कि चिड़िया कहे जाने वाले भारत में अचानक ऐसा क्या हो गया कि हम अंग्रेजो और इस्लामी आक्रमणकारियों शासको से आज़ाद हुए दसको बीत जाने के बाद भी अपनी प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त नहीं कर पा रहे है.. हमारे ही साथ आज़ाद हुआ अमेरिका आज विश्व कि महाशक्ति है और हम आज भी वही खड़े नजर आते है जहा आज़ाद होने के समय थे.. (हालाकि अमेरिका का विकास भी कमजोर नीव पर बनी इमारत कि तरह खोखला ही है) मेरे विचार में हमने स्वतन्त्र होने के बाद विकाश कि यात्रा में जिस रास्ते का चुनाव किया वो रास्ता और तरीका ही गलत है.. हमारे देश ने जिस राज्य तंत्र और शासन व्यवस्था के बल पर सदियों विश्व का नेतृत्व किया था  और सोने कि चिड़िया कहलाये, हम उस पथ को स्वतंत्रता के बाद अंगीकार ही नहीं कर पाए.. हमने अंग्रेजो और मुगलों द्वारा थोपी गयी शासन व्यवस्था के बल पर ही विकास के सपने देखे है जो हमें कही भी सही दिशा देते नजर नहीं आते .. हमारे लोकतंत्र में शासन करने वाली प्रत्येक सरकार रामराज्य लाने का आश्वाशन नागरिको को देती है पर क्या यह संभव है?
हमारी कालांतर शासन पद्धत्ति का आधार स्तम्भ सदा ही हमारा संत समाज हुआ करता था .. उसी संत समाज कि उपेक्षा ने ही हमें अंधकारमय भविष्य कि ओर धकेला है ... हमारे देश में पहले राजतंत्र था पर उनकी बागडोर कि जिम्मेदारी राजा पर तो होती ही थी पर उतनी ही जिम्मेदार संत समाज भी होता था.. क्योंकि राजा के सलाहकार मंडल में संतो का प्रथम स्थान होता था.. देश के महत्वपूर्ण विभाग शिक्षा, रक्षा और सूचना तंत्र संत नेतृत्व के हाथों में हुआ करते थे.. राजा राज्य के कठिन से कठिन निर्णय राज़ गुरुओं के परामर्श से ही लिया करते थे... संतो कि राज्य के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका होने के कारण राज्य उत्तरोत्तर प्रगति करते थे.. और खुशाल प्रजा थी..

अब हमारे लोकतंत्र में संत समाज को एक हासिये पर धकेल दिया गया है.. और उनकी उपेक्षा कर उनकी जगह चापलूसो ने ले ली है... हमारे लोकतंत्र में संत समाज कि सलाह को ऐसे नकार दिया जाता है जैसे किसी देश हित से अनजान व्यक्ति ने सलाह दी हो.. साधु संतो कि सीख को हम केवल धार्मिक प्रवचन मानकर अगले ही दिन भूल जाते है.. हमारे साधु संतो को कहा जाता है कि वे सिर्फ़ पूजा पाठ तक सीमित रहे देश के आंतरिक मामलों से उन्हें दूर रेहना चाहिए.. हमारे परम ज्ञानी साधु संतो के इसी तिरस्कार के कारण आज हम विकास पथ पर तो बढ़ रहे है पर इस विकास का चरम बहुत ही असंतुलित और भयानक नजर आता है.. आज हमारे देश के संचालक शीर्ष नेता से लेकर नौकरशाहों तक सभी भ्रष्टाचार में डूबे है.. प्रजा कि समश्याये और सुख दुःख से किसीसे कोइ लेना देना नही है, सब अपने हित साधने में लगे हुए है.. पहले जनसेवा निस्वार्थ भाव से अपना धर्म समझकर के की जाति थी और आज हम सेवा इसलिए करते है ताकि न्यूज़ पेपर में फोटो आ सके.. पहले गुरुकुल से एक सभ्य योग्य पुरुष,  और राष्ट्रभक्त शिष्य बाहर निकला करता था पर आज प्रतिस्पर्धी, श्वार्थी, कुसंस्कृत और कह सकते है कुछ मामलों मे आतंकवादी, नक्सली, बलात्कारी पुरुष भी निकलते है जिन्हें राष्ट्र धर्म से कोई लेना देना नहीं होता और वे अपनी संकुचित विचारधारा के चलते प्रशिद्धि और लालसा पूरी करने हेतु कत्लेआम करने से भी नहीं कतराते और राष्ट्र का सौदा कर उसे खंडित करने तक का सड़यन्त्र करते है... कालांतर में जहा स्व-स्त्री को छोड़कर दुसरी नारी पर दृष्टि डालना भी पाप समझा जाता था आज हम "लिव इन रिलेसनशिप" में जी रहे है जहा कपड़े कि तरह साथी बदले जाते है, इस से उत्पन्न नाजायज संतान के न तो बाप और ना ही माँ का पता होता है, क्योंकि इन्हें पैदा होते ही कहीं गलियों में, मन्दिर में या किसी कूड़े दान में फेंक दिया जाता है.. हमारी शिक्षा व्यवस्था हमें प्रतिस्पर्धा सिखाती है भागना सिखाती है.. बस जीतो किसी भी हालत में चाहे अपने प्रतिस्पर्धी को किसी भी रूप में हराओ.. इसी नीति ने आज अपराधियों को जन्म दिया है आगे बढ़ने के लिए हमारे विद्यार्थी किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है.. गलाकाट प्रतिश्पर्धा में हमने अपने मर्यादाओ को मीलो पीछे छोड़ दिया .. आज हम पूरी तरह व्यसनों की गिरफ्त में चले जा रहे है.. कम से कम ऐसी व्यवस्था तो हमारे पूर्वज ऋषियों ने हमें नहीं सौपी थी... हमारे ऋषियों ने ऐसे शस्त्र बनाये थे जिनसे पापियो और दुराचारियो का संहार किया जाता था पर आज हमने उन्हें परिस्क्रत करके परमाणु बम बना लिया जो एक बार फूट जाने पर अच्छा-बूरा, अपना-पराया कुछ नही देखता सबकुछ लील जाता है... तरक्की के जिस जिस नए पथ पर हम निकल चले है उसका प्रतिफल विकसित सभ्यता तो जरूर हो सकता है पर इसका अंत एक अंधकारमय शून्य के रूप में नजर आता है ..

यदि हमें अपनी खोई हुई वही पुरानी साख वापस चाहिए तो हमें एक बार फिर अपने अन्दर के रावण को मारने के लिए वानर जैसे अनुसाशित एवं निश्वार्थी शिष्य बनना होगा और हमारे ऋषि मुनियों और संत समाज के उपदेशो का अक्छरस पालन करना होगा.. यदि राम राज्य लाना है तो अपनी डोर संत समाज के हाथों में देनी होगी.. ताकि हम एक बार फिर से उसी खुशहाल भारत को देख पाये जो विश्व गुरु था,  जिसे सोने कि चिड़िया कहा जाता था.. जहा प्रजा का हर व्यक्ति खुस और संतुष्ट होता था ..
 
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