‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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सरकारों द्वारा जनता को फ्री में पैसे बांटने से देश की अर्थव्यवस्था और समाज को होने वाले नुकसान

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सरकारों द्वारा जनता के लिए फ्री योजनाएं चलाने से अनेक लाभ होते हैं, जैसे गरीबी निवारण, सामाजिक समरसता, स्वास्थ्य सुधार, शिक्षा में वृद्धि आदि। फिर भी, कुछ असरदार तथ्य भी हैं जिससे इन योजनाओं से अर्थव्यवस्था और समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है:-

1. अधिक व्यय: फ्री योजनाएं चलाने के लिए सरकार को अधिक पैसा खर्च करना पड़ता है। यदि सरकार इन व्ययों को संचालित करने में असमर्थ होती है, तो यह ऋण में जा सकती है।

2. कर दर में वृद्धि: अधिक व्यय को संचालित करने के लिए सरकार को करों में वृद्धि करनी पड़ सकती है, जिससे उद्यमिता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

3. अनुचित उपयोग: कभी-कभी फ्री योजनाओं का अनुचित उपयोग होता है, जैसे लोग उन्हें अधिक और अवश्यक से ज्यादा उपयोग कर सकते हैं।

4. संविदानिक असंतुलन: कई बार, विशेष समुदायों या समूहों के लिए योजनाएं तैयार की जाती हैं, जिससे समाज में असंतोष और असंतुलन पैदा हो सकता है।

5. आलस्य और आशा पर आधारित समाज: अधिक फ्री योजनाओं की उपलब्धता से लोगों में खुद को आत्मनिर्भर बनाने की प्रेरणा कम हो सकती है।

6. भ्रष्टाचार: कई बार, फ्री योजनाओं में भ्रष्टाचार और दलाली की समस्याएं उत्पन्न होती हैं, जिससे योजना का लाभ सही लोगों तक नहीं पहुंचता।

7. अस्थायी समाधान: कुछ फ्री योजनाएं सिर्फ समस्या के अस्थायी समाधान के रूप में कार्य करती हैं और वे मौलिक समस्याओं को हल नहीं करते।


इस प्रकार, जबकि सरकारी फ्री योजनाएं समाज के कुछ हिस्सों को लाभ पहुंचा सकती हैं, इससे संबंधित कुछ चुनौतियां भी होती हैं जिन्हें संबोधित करना महत्वपूर्ण है।
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सर्वोच्च निर्णय! कोई सर्वोच्च नहीं!

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माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध दिल्ली सरकार की अपील पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देकर जो व्यवस्था की, उसका घोषित प्रभाव यह हुआ कि संवैधानिक रूप से दिल्ली में न तो मुख्यमंत्री ही और न ही उपराज्यपाल सर्वोच्च है। उच्चतम न्यायालय ने चुनी हुई सरकार के महत्व को स्थापित करते हुये दिल्ली प्रदेश के संबंध में यह महत्वपूर्ण निर्णय दिया कि लोकतंत्र में सत्ता का अधिकार चुनी हुई सरकार के पक्ष में ही होना चाहिये तथा मत्रिमंडल के निर्णय को उपराज्यपाल को मानना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने आगे यह भी कहा कि दिल्ली प्रदेश अन्य प्रदेशो के समान एक पूर्ण राज्य नहीं है,बल्कि कुछ विशिष्ट शक्यिाँ लिये हुये केन्द्र प्रशाषित राज्य ही है। इसलिए तीन विषयों जमीन, पुलिस और कानून व्यवस्था को छोड़ शेष विषयों में दिल्ली सरकार (मंत्रिमंडल) द्वारा लिये गये निर्णयों को उपराज्यपाल को मानना चाहिए, बल्कि उच्चतम न्यायालय ने एक कदम आगे जाते हुये यह भी कहा कि दिल्ली के एलजी राज्यपाल नहीं बल्कि प्रशासक है। उच्चतम न्यायालय ने दोनो पक्षों को समझाते/लताड़ते हुये कहा कि न किसी की ‘तानाशाही’ होनी चाहिये और न अराजकता वाला रवैया होना चाहिये। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय नेे एक ऐसा निर्णय दिया है जिसे सभी पक्ष अपनी विजय मानकर हृदय की गहराई से स्वयं की जीत मान कर पीठ थप थपा रहे है और जश्न मना रहे हैै। लेकिन वास्तव में यह जीत उच्चतम न्यायालय की है। जिसने सभी पक्ष के मन में अपने निर्णय के प्रति गहन विश्वास पैदा किया है। यद्यपि यह भी सत्य है कि कोई भी पक्ष अपने को हारा हुआ स्वीकार नहीं करना चाहता है, क्योकि राजनीति में अनुभूति (पर्सेप्शन) एक महत्वपूर्ण कारक होता है। इसलिये समस्त जनता पक्ष के बीच अपने को जीता हुआ बताकर पिछले तीन साल की संवैधानिक असफलता में अपने पक्ष को मजबूत बताने के लिये उच्चतम के निर्णय का ही सहारा ले रहे है। यद्यपि उच्चतम न्यायालय द्वारा दिल्ली राज्य के उपराज्यपाल को राज्यपाल नहीं प्रशासक है कह कर उपराज्यपाल के प्रति कड़क भाव को ही व्यक्त किया है। 
फिर भी ‘अराजकता’ व ‘राज’ के बीच सीमा रेखा खींचने के बावजूद उच्चतम न्यायालय स्पष्ट रूप से उपराज्यपाल व मुख्यमंत्री के अधिकार एवं अधिकार क्षेत्र के विभाजन करने से बचती रही। इसलिये उच्चतम न्यायालय ने यह अंत में यही कहा कि विवाद की स्थिति में दोनो पक्षों को अपना मामला मिल बैठकर आपस में सुलझाना चाहिए। साथ ही मंत्रिमंडल का कोई निर्णय संविधानोंत्तर होने की स्थिति में मतभेद की स्थिति में ही विवाद को राष्ट्रपति के पास भेजा जाना चाहिए।
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