राजीव खण्डेलवाल:
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विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के लोकतंत्र की संवैधानिक सर्वोच्च संस्था हमारी संवैधानिक रूप से चुनी गई 'संसद' है। संसद के दोनों सदन में लोकसभा, राज्यसभा के कुल मिलाकर ७८८ (५४५+२४३) सदस्य है जो न केवल देश के लिये कानून बनाते है बल्कि समवर्ती सूची में उल्लेखित विषयों पर राज्यों के लिए भी कानून बनाते है। यही संसद वहसंविधान जिसके अंतर्गत उसका गठन हुआ है, में भी देश के हितों को ध्यान में रखकर संविधान के मूल ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) को नुकसान पहुंचाये बिना उसमें उक्त सीमा तक संशोधन करने का अधिकार रखती है जैसा कि ''केशवानंद भारती" (२४ अपे्रल १९७३) के प्रकरण में माननीय उच्चतम न्यायालय ने निर्णित किया था। आज न केवल देश बल्कि विश्व के सबसे चर्चित आंदोलनकारी सत्यागृही अन्ना हजारे हैं जिनके जनलोकपाल बिल के लिए किये गये आंदोलन को अमेरिकन पत्रिका 'टाईम्स' ने 'विश्व के १० सबसे प्रभावशाली जनआंदोलनो' में शामिल किया है। जब ऐसा व्यक्तित्व 'अन्ना' एक ही सांस में एक साथ एक तरफ उक्त चुनी हुई संसद के सामने लोकपाल कानून बनाने के लिए बार-बार जाते है और दूसरी तरफ उसकी वैधता को ही निशाना बनाते हुये यह कहते है कि असली संसद 'वह; नही बल्कि 'यह' है, जो मेरे सामने बैठी है (रामलीला ग्राउण्ड पर अनशन पर बैठे विशाल जनमानस की ओर इशारा करते हुए) उनका यह कथन कि सांसदो को अपनी बात संसद में कहने के पूर्व ग्राम सभा जो कि असली लोकतांत्रिक संसद है, के सामने रखनी चाहिये (जमीन अधिकरण के संबंध में) व अभी हाल में ही अनका यह कथन कि यह संसद चोर डाकुओं से भरी है जिसमें १५० से अधिक अपराधी चुनकर गये है। तब इन परिस्थितियों के सामने एक नागरिक यह सोचने पर मजबूर होता है कि असली संसद कौन सी है? इसका विश्लेषण किया जाना आवश्यक है।
इसमें कोई शक व शुबा नहीं कि देश ने जब 26 जनवरी 1950 को अपना संविधान अपनाया तब ही वह स्वतंत्र भारत से गणतंत्र भारत कहलाया जिसके अंतर्गत ही लोकसभा और राज्यसभा का गठन होकर संसद का निर्माण हुआ और प्रधानमंत्री वाली संसदीय पद्धति अपनाई गई। इस बात में भी न कोई शक वो शिकवा है कि जिस भावना, उद्देश्य को लेकर देश की जनता ने स्वशासन करने के लिए एक लोकतांत्रिक संसद की जो आशा और उन्नत व बढ़ते हुये भारत की कल्पना की थी उसे हम पाने में असफल रहे है। यद्यपि संसदीय लोकतंत्र पर्याप्त लम्बा सफर कर चुका है लेकिन कई कमिंयो के बावजूद कोई बेहतर विकल्प न होने के कारण न केवल हमें इस प्रणाली को मजबूत करते रहना पड़ेगा बल्कि समय की मांग के अनुसार समय-समय पर आवश्यक संवैधानिक संशोधन भी करते रहने होंगे। अत: जब तक हम इस संसदीय प्रजातंत्र का उचित विकल्प नहंी ढूंढ लेते है या इसमें आवश्यक व्यापक सुधार के लिये उचित संशोधन नहीं कर लेतें है तब तक अन्ना व उनकी सिविल सोसायटी को इसी संसद को ही असली जनतांत्रिक संसद मानना होगा। उसमें व्याप्त कमियों के बावजूद उसके अस्तित्व को चैलेंज नहीं किया जा सकता है। क्योंकि जिस जनता की अन्ना बात करते है उसी जनता ने उन १५० से अधिक अपराधियों को चुनकर संसद में भेजा है व अन्ना व उनकी टीम ने भी अपना महत्वपूर्ण 'मत' का उपयोग इसी संसद को चुनने में किया है। अन्ना १५० से अधिक सांसदो के अपराधीकरण का उल्लेख करते हुए यह क्यों भूल जाते है कि उनके आंदोलन में भी आये समस्त व्यक्ति क्या ''पूर्णत: ईमानदार है उनमें कोई भ्रष्टाचारी, अपराधी कदाचारी तत्व मौजूद नहीं थे इसका क्या कोई स्क्रीनिंग उन्होने की?
लोकतंत्र मेें सबको अपने विचार रखने की स्वतंत्रता है, यह बात अन्ना हजारे को समझ में आना चाहिये क्योंकि जिस जनता के समर्थन के आधार पर वे अपने विचारो को जनता व संसद के बीच पहुंचाते है उसी जनता द्वारा चुने गये सांसदो (जिसमें अपराधिक प्रकरण चल रहे सांसद भी शामिल है) द्वारा संसद में अपने विचार रखे जाते है। लेकिन सफलता से उत्पन्न दर्प भाव के कारण वे सिर्फ इस बात पर ही विश्वास करने लगे है कि लोकपाल के मुद्दे पर वे ही एकमात्र 'सच' है और जो लोग उनके विचारों से जरा से भी असहमत है वे गलत है, यह धारणा लोकतंत्र में उचित नहीं है। मुझे एक कथन याद आता है कि जब सीताराम येचुरी कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहा करते थे तब उनके बाबत एक जुमला बहुत ही प्रसिद्ध था ''न खाता न बही जो केसरी कहे वही सही"। अन्ना जी भी शायद इसी दर्प व्याधि से ग्रसित है और बार-बार संसद को चेंलेंज कर खण्डित करने का खतरनाक प्रयास कर रहे है जो भारत के लोकतंत्र की मजबूती व स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। मैं बार- बार एक ही बात हमेशा कहता हूं कि कोई भी व्यक्ति अपने आप में पूर्ण नहीं होता है। इसी तरह अन्ना जिन्होने देश की लोकशाही को जागृत करके स्वतंत्र भारत में जय प्रकाश नारायण के बाद सबसे बड़ा कार्य किया है, जरूरी नहीं है कि उनके हर विचार, बात व कार्य हर दृष्टि से हर हमेशा सही हो। अन्ना को अपने विचारों पर दृढ़ भी रहना चाहिये जैसा कि शरद पवार के थप्पड़ मामले में नही रह पाये। आश्चर्य! धीर, वीर गंभीर अन्ना के स्वभाव में विचलन भले क्षणिक ही क्यों न हो?
हमारे देश की लोकतांत्रिक प्रणाली में त्रिस्तरीय न्याय प्रणाली है। एक न्यायालय का निर्णय दूसरी न्यायपालिका में बदल जाता है और तत्पश्चात ऊपरी अदालत में जाकर निर्णय में पुन: बदलाव हो जाता है। अत: एक निचली न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के विरूध्द जब हम उच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूध्द उच्चतम न्यायालय में अपील करते है। तीनो न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा एक ही तथ्य पर निर्णय तीन अलग-अलग तरह से दिया गया होता है, तो क्या हम न्यायपालिका के अस्तित्व पर ही उंगली उठाने लग जायेंगे? लेकिन अन्ना संसद के तथाकथित रूप से असफल होने पर संसद के अस्तित्व पर ही प्रश्र चिन्ह लगा रहे है। संविधान में संसद द्वारा दायत्वि न निभाने पर 5 वर्ष बाद सांसदो (सरकार)को बदलने की व्यवस्था है जो हम (जनता) ठीक से नहीं कर पा रही है। यदि 5 साल की अवधि काफ ी लम्बी होती है तो उसमें संविधान संशोधन कर ५ साल की अवधि कम की जा सकती है। आपातकाल के दौरान संसद की अवधि 5 वर्ष से बढ़ाकर तत्कालीन सरकार की स्वार्थ पूर्ति के लिए ६ वर्ष कर दी गई थी। यदि हम सांसदो के कार्यो से संतुष्ट नही है तो हम 'राईट टू रिकाल' का प्रावधान ला सकते है जैसा कि अन्ना मांग भी कर रहे है। देश के कई राज्यों में नगरपालिका स्तर पर यह प्रावधान लागू भी किया गया है। अनिवार्य मतदान की व्यवस्था की जा सकती है। अनेक चुनाव सुधारो की बात की जा सकती है। अर्थात व्यवस्था को सुधारने के विभिन्न संवैधानिक संशोधन किये जा सकते है। यदि हम मानते है कि आज की व्यवस्था ही 'अवांछनीय' हो गई है तो भी हम नई 'संवैधानिक' सभा की मांग भी कर सकते है। लेकिन माननीय अन्ना जी जब तक वर्तमान ५ वर्ष की व्यवस्था है तब तक संसद के अस्तित्व को चैलेंज कहना उचित नहीं है क्योंकि भीड तंत्र व लोकशाही में अंतर है। एक ओर जो भीड़ आपके सामने खड़ी है उसमें आपके विचारों से सहमत व असहमत दोनो प्रकार के लोग होते है। जैसा कि हम देखते है चुनावी माहौल में एक नेता अपने साथ भीड़ इकट्रठी किये होता है लेकिन उसका चुनावी परिणाम वोटों में परिवर्तन लाये आवश्यक या सच नहीं होता। यदि भीड़ ही एकमात्र समर्थन का मापदंड है तो अभी हुई मायावती की रेली, कांग्रेस के राहुल गांधी की सभा में हुई भीड़ रहने के बाबत क्या कहेंगे। क्या उनमें आये समस्त लोग अन्ना के जनलोकपाल के विरोधी है? क्योंकि उक्त रैलियो के नेतागण अन्ना से सहमत नहीं है। इसलिए यह अंदाज लगाना गलत है कि भीड उनके विचारों से सहमत है । वैसे यह खुशी की बात है कि सरकार द्वारा जो लोकपाल बिल आज संसद में पेश किया जा रहा है उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अन्ना व उनकी टीम ने इसे लोकसभा मेंपारित प्रस्ताव 'सेंस ऑफ हाऊस' के विपरीत बताकर उसी संसद की अवमानना माना है जिसके अस्तित्व पर वे लगातार प्रश्रचिन्ह लगाते रहे है।
अन्ना इस देश की गैर राजनैतिक पूंजी है और जिस दिन वे राजनैतिक पूॅजी होगे उस दिन वे 'राजनैतिक' तो हो जायेंगे, लेकिन 'पूंजी' नहीं रह पायेंगे। यह देश के लिये ठीक नहीं हेागा क्योंकि देश को स्वतंत्र हुये 67 साल के इतिहास में विनोबा भावे, जय प्रकाष नारायण और अन्ना हजारे जैसे व्यक्तित्व बिरले ही पैदा होते है इसलिये अन्ना टीम से अपील है कि वे अन्ना को रालेगण सिद्धि का ताकतवर 'अन्ना' ही रहने दे 'सेलीब्रिटी' न बनाये। अन्ना जनता की आत्मशक्ति का केन्द्र पूंज है।
इसमें कोई शक व शुबा नहीं कि देश ने जब 26 जनवरी 1950 को अपना संविधान अपनाया तब ही वह स्वतंत्र भारत से गणतंत्र भारत कहलाया जिसके अंतर्गत ही लोकसभा और राज्यसभा का गठन होकर संसद का निर्माण हुआ और प्रधानमंत्री वाली संसदीय पद्धति अपनाई गई। इस बात में भी न कोई शक वो शिकवा है कि जिस भावना, उद्देश्य को लेकर देश की जनता ने स्वशासन करने के लिए एक लोकतांत्रिक संसद की जो आशा और उन्नत व बढ़ते हुये भारत की कल्पना की थी उसे हम पाने में असफल रहे है। यद्यपि संसदीय लोकतंत्र पर्याप्त लम्बा सफर कर चुका है लेकिन कई कमिंयो के बावजूद कोई बेहतर विकल्प न होने के कारण न केवल हमें इस प्रणाली को मजबूत करते रहना पड़ेगा बल्कि समय की मांग के अनुसार समय-समय पर आवश्यक संवैधानिक संशोधन भी करते रहने होंगे। अत: जब तक हम इस संसदीय प्रजातंत्र का उचित विकल्प नहंी ढूंढ लेते है या इसमें आवश्यक व्यापक सुधार के लिये उचित संशोधन नहीं कर लेतें है तब तक अन्ना व उनकी सिविल सोसायटी को इसी संसद को ही असली जनतांत्रिक संसद मानना होगा। उसमें व्याप्त कमियों के बावजूद उसके अस्तित्व को चैलेंज नहीं किया जा सकता है। क्योंकि जिस जनता की अन्ना बात करते है उसी जनता ने उन १५० से अधिक अपराधियों को चुनकर संसद में भेजा है व अन्ना व उनकी टीम ने भी अपना महत्वपूर्ण 'मत' का उपयोग इसी संसद को चुनने में किया है। अन्ना १५० से अधिक सांसदो के अपराधीकरण का उल्लेख करते हुए यह क्यों भूल जाते है कि उनके आंदोलन में भी आये समस्त व्यक्ति क्या ''पूर्णत: ईमानदार है उनमें कोई भ्रष्टाचारी, अपराधी कदाचारी तत्व मौजूद नहीं थे इसका क्या कोई स्क्रीनिंग उन्होने की?
लोकतंत्र मेें सबको अपने विचार रखने की स्वतंत्रता है, यह बात अन्ना हजारे को समझ में आना चाहिये क्योंकि जिस जनता के समर्थन के आधार पर वे अपने विचारो को जनता व संसद के बीच पहुंचाते है उसी जनता द्वारा चुने गये सांसदो (जिसमें अपराधिक प्रकरण चल रहे सांसद भी शामिल है) द्वारा संसद में अपने विचार रखे जाते है। लेकिन सफलता से उत्पन्न दर्प भाव के कारण वे सिर्फ इस बात पर ही विश्वास करने लगे है कि लोकपाल के मुद्दे पर वे ही एकमात्र 'सच' है और जो लोग उनके विचारों से जरा से भी असहमत है वे गलत है, यह धारणा लोकतंत्र में उचित नहीं है। मुझे एक कथन याद आता है कि जब सीताराम येचुरी कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहा करते थे तब उनके बाबत एक जुमला बहुत ही प्रसिद्ध था ''न खाता न बही जो केसरी कहे वही सही"। अन्ना जी भी शायद इसी दर्प व्याधि से ग्रसित है और बार-बार संसद को चेंलेंज कर खण्डित करने का खतरनाक प्रयास कर रहे है जो भारत के लोकतंत्र की मजबूती व स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। मैं बार- बार एक ही बात हमेशा कहता हूं कि कोई भी व्यक्ति अपने आप में पूर्ण नहीं होता है। इसी तरह अन्ना जिन्होने देश की लोकशाही को जागृत करके स्वतंत्र भारत में जय प्रकाश नारायण के बाद सबसे बड़ा कार्य किया है, जरूरी नहीं है कि उनके हर विचार, बात व कार्य हर दृष्टि से हर हमेशा सही हो। अन्ना को अपने विचारों पर दृढ़ भी रहना चाहिये जैसा कि शरद पवार के थप्पड़ मामले में नही रह पाये। आश्चर्य! धीर, वीर गंभीर अन्ना के स्वभाव में विचलन भले क्षणिक ही क्यों न हो?
हमारे देश की लोकतांत्रिक प्रणाली में त्रिस्तरीय न्याय प्रणाली है। एक न्यायालय का निर्णय दूसरी न्यायपालिका में बदल जाता है और तत्पश्चात ऊपरी अदालत में जाकर निर्णय में पुन: बदलाव हो जाता है। अत: एक निचली न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के विरूध्द जब हम उच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूध्द उच्चतम न्यायालय में अपील करते है। तीनो न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा एक ही तथ्य पर निर्णय तीन अलग-अलग तरह से दिया गया होता है, तो क्या हम न्यायपालिका के अस्तित्व पर ही उंगली उठाने लग जायेंगे? लेकिन अन्ना संसद के तथाकथित रूप से असफल होने पर संसद के अस्तित्व पर ही प्रश्र चिन्ह लगा रहे है। संविधान में संसद द्वारा दायत्वि न निभाने पर 5 वर्ष बाद सांसदो (सरकार)को बदलने की व्यवस्था है जो हम (जनता) ठीक से नहीं कर पा रही है। यदि 5 साल की अवधि काफ ी लम्बी होती है तो उसमें संविधान संशोधन कर ५ साल की अवधि कम की जा सकती है। आपातकाल के दौरान संसद की अवधि 5 वर्ष से बढ़ाकर तत्कालीन सरकार की स्वार्थ पूर्ति के लिए ६ वर्ष कर दी गई थी। यदि हम सांसदो के कार्यो से संतुष्ट नही है तो हम 'राईट टू रिकाल' का प्रावधान ला सकते है जैसा कि अन्ना मांग भी कर रहे है। देश के कई राज्यों में नगरपालिका स्तर पर यह प्रावधान लागू भी किया गया है। अनिवार्य मतदान की व्यवस्था की जा सकती है। अनेक चुनाव सुधारो की बात की जा सकती है। अर्थात व्यवस्था को सुधारने के विभिन्न संवैधानिक संशोधन किये जा सकते है। यदि हम मानते है कि आज की व्यवस्था ही 'अवांछनीय' हो गई है तो भी हम नई 'संवैधानिक' सभा की मांग भी कर सकते है। लेकिन माननीय अन्ना जी जब तक वर्तमान ५ वर्ष की व्यवस्था है तब तक संसद के अस्तित्व को चैलेंज कहना उचित नहीं है क्योंकि भीड तंत्र व लोकशाही में अंतर है। एक ओर जो भीड़ आपके सामने खड़ी है उसमें आपके विचारों से सहमत व असहमत दोनो प्रकार के लोग होते है। जैसा कि हम देखते है चुनावी माहौल में एक नेता अपने साथ भीड़ इकट्रठी किये होता है लेकिन उसका चुनावी परिणाम वोटों में परिवर्तन लाये आवश्यक या सच नहीं होता। यदि भीड़ ही एकमात्र समर्थन का मापदंड है तो अभी हुई मायावती की रेली, कांग्रेस के राहुल गांधी की सभा में हुई भीड़ रहने के बाबत क्या कहेंगे। क्या उनमें आये समस्त लोग अन्ना के जनलोकपाल के विरोधी है? क्योंकि उक्त रैलियो के नेतागण अन्ना से सहमत नहीं है। इसलिए यह अंदाज लगाना गलत है कि भीड उनके विचारों से सहमत है । वैसे यह खुशी की बात है कि सरकार द्वारा जो लोकपाल बिल आज संसद में पेश किया जा रहा है उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अन्ना व उनकी टीम ने इसे लोकसभा मेंपारित प्रस्ताव 'सेंस ऑफ हाऊस' के विपरीत बताकर उसी संसद की अवमानना माना है जिसके अस्तित्व पर वे लगातार प्रश्रचिन्ह लगाते रहे है।
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बढिया पोस्ट।
जानकारी के लिए आभार....
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