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संसद पर हमले की दसवीं बरसी: अफजल गुरू पर फॉसी के लिए अनशन क्यों नहीं?

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राजीव खण्डेलवाल
मंगलवार दिनांक १३ तारीख को संसद पर १३ दिसम्बर २००१ को हुए कातिलाना हमले की दसवीं पूण्यतिथि पर मारे गये शहीदों को संसद भवन में देश के श्रेष्ठतम राजनैतिज्ञो द्वारा माला पहनाकर श्रद्धांजली दी गई। भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहा जाता है। लोकतंत्र की आत्मा, स्तम्भ, सम्प्रभुता संसद मानी गयी है व विधानसभा, नगरपालिका तथा ग्राम पंचायत उसकी सहायक शाखाए है। देश की अस्मिता का चीरहरण होकर लोकतंत्र की हत्या कर संसद पर १० वर्ष पूर्व हमला हुआ था जिसमें ७ लोग शहीद एवं १८ लोग घायल हुए थे। देश की सर्वोच्च (अंतिम) न्यायपालिका उच्चतम न्यायालय ने अंतिम रूप से वर्ष २००४ में संसद पर हमले के मामले को निर्णित कर फॉसी की सजा को बरकरार रखा। इसके बावजूद अफजल गुरू को देश की राजनीति और संवैधानिक प्रावधान के चलते आज तक फॉसी नहीं हो पायी। क्या १३ तारीख को देश के कर्णधारों को इस बात पर चिंता नहीं करना चाहिए था कि अफजल गुरू की फॉंसी की सजा अभी तक कार्यान्वित क्यों नही हो पाई? यदि महामहिम राष्ट्रपति द्वारा अफजल गुरू के परिवार द्वारा दायर दया याचिका (मर्सी पिटिशन) पर निर्णय न दिये जाने के कारण कोई संवैधानिक रूकावट है तो उसे दूर करने के उपायों पर विचार नहीं होना चाहिए था? क्या महामहिमजी से दया याचिका पर तुरंत निर्णय दिये जाने की अपील नहीं की जानी चाहिए थी? लेकिन शायद देश के राजनैतिक व्यवस्था के साथ-साथ नागरिकों की देश की सम्मान की रक्षा की भावना में गिरावट आना ही इसका मूलभूत कारण हो सकता है। यह इस बात से भी सिद्ध है कि देश का मीडिया जो दिल्ली के किसी मोहल्ले में हुई डबल मर्डर की घटना को तो पूरे देश में चर्चित कर देता है। लेकिन उसने भी सामान्य रूप से उक्त मुद्दे को १३ तारीख को उस तरह से देश के सामने नहीं रखकर, देश के कर्णधारो और नागरिको का ध्यान आकर्षित नहीं किया जैसा कि मीडिया से उम्मीद की जाती है और जो उसका दायित्व भी है।
कालाधन, भ्रष्टाचार और लोकपाल से भी यदि कोई बड़ा मुद यदि देश में वर्तमान में विद्यमान है तो वह अफजल गुरू को फासी देने का मुद्दा है। वह इसलिए क्योंकि वह मात्र एक अपराधी के फांसी का मुद नहीं है बल्कि देश की अस्मिता को लूटने वाला संवैधानिक व्यवस्था को ढहाने वाला ऐसा घृणापूर्ण कभी न माफ किया जा सकने वाला कृत्य है। इसके दाग को मिटाया तो नहीं जा सकता लेकिन उक्त अपराध को करने वाले व्यक्ति को अधिकतम मानवीय कानूनी सजा देकर स्वयं को तुच्छ रूप में संतुष्ट किया जाकर आने वाले समय को एक हल्की फुल्की चेतावनी जरूर दी जा सकती थी जिससे भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृति न हो। राष्ट्रपति के समक्ष लंबित अनेक फांसी की सजा को माफ करने वाली दया याचिकाए लंबित रहने के कारण महामहिम राष्ट्रपति के इस विवेकाधीन अधिकार पर प्रश्र उठना स्वभाविक है। क्या राष्ट्रपति के विवेकाधिकार को समाप्त तो नहीं कर देना चाहिए? या दया याचिका पर निर्णय लेने की कोई उचित समय सीमा का प्रतिबंध तो नहीं लगाना चाहिए? क्योंकि पूर्व में माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने एक निर्णय में यह प्रतिपादित किया है कि सजा सुनाये जाने के बाद लम्बे समय तक फॉंसी की सजा को किर्यान्वित न करने के कारण उसे अमानवीय प्रताडऩा मानकर फॉसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया था। अत: इसकी समय सीमा क्यो नहंी निर्धारित की जानी चाहिए जैसे की अधिकतर कानूनों में समय सीमा का प्रावधान होता है। यदि राष्ट्रपति जी के पास दया याचिका पर विचार करने हेतु समय नहीं है तो उक्त प्रावधान को हटा क्यों नही देना चाहिए व अंतिम रूप से निर्णित उच्चतम न्यायालय के निर्णय का पालन होना चाहिए। यदि सब कुछ सही है तो क्या राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण यदि निर्णय नहीं हो पा रहा है तो इसका जवाब निश्चित रूप से केंद्रीय सरकार को जनता को देना पड़ेगा। क्योंकि तकनीकि रूप से कानूनी रूप से दया याचिका पर निर्णय राष्ट्रपति द्वारा लिया जाने के बावजूद व्यवहारिक रूप में महामहिम केंद्रीय सरकार के मत के अनुसार ही निर्णय लेते है। इससे यह बात सिद्ध होता है कि केंद्रीय सरकार इसे एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है जो की अनुचित व अवांछित है। जिस राजनैतिक उद्देश्य के लिए उसने इस मुद्दे को लटकाये रखा है। वह जिस उचित समय (जैसा समय-समय पर केन्द्रीय सरकार कहती रही है) की रास्ता देख रही है। वह समय आने पर भी उससे उसको फायदा नहीं होगा क्योंकि मामला देश की अस्मिता से जुड़ा है। लेकिन तुच्छ राजनैतिक दृष्टिकोण से कभी कभी मति मारी जाती है और देशहित ताक पर रख दिये जाते है। राष्ट्र यह जानना चाहता है कि इस देश में ऐसा कौन सा चेला है जो 'गुरूÓ को सजा न होने देने में सहायक सिद्ध हो रहा है।
अब मैं आपका ध्यान इस मुद्दे पर देश की विभिन्न राजनैतिक सामाजिक संगठन और स्थापित हस्तियों द्वारा कोई आंदोलन न छेडऩे की ओर ले जाना चाहता हूं। अन्ना ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनलोकपाल बिल लाने के लिए विभिन्न अवसरों पर अनशन कर पूरे देश को आंदोलित कर दिया। बाबा रामदेव कालाधन के मुद़दे पर रामलीला मैदान पर धरने पर बैठने से लेकर अपनी देशव्यापी यात्रा द्वारा पूरे देश को आंदोलित कर चुके है। विभिन्न राजनैतिक दल विभिन्न मुद्दो को लेकर गाहे बगाहे आंदोलन करते रहते है। अर्थात आंदोलन, अनशन हर व्यक्ति, संस्था और पार्टी की नजर में उनके उद्देश्य की पूर्ति का एक सफल हथियार रहा है। देश की अस्मिता को नुकसान पहुंचाने वाले अफजल गुरू को उसकी अंतिम तार्किक परणीति तक पहुंचाने अर्थात फांसी की सजा को लागू करने के लिए देश अनशन पर क्यों नहीं बैठ रहा है और देश क्यो नहीं आंदोलित हो रहा है? और इस उद्देश्य हेतु देश को आंदोलित करने के लिए गांधीवादी अन्ना हजारे आगे क्यों नहीं आ रहे यह सवाल मन को कंचोटता है। 'अन्नाÓ का नाम इसलिए नही कि 'अन्नाÓ ने ही समस्त मुद्दो को उठाने का ठेका ले रखा है बल्कि इसलिए अन्ना को आगे आना चाहिए क्योंकि देश में वर्तमान में वे ही एकमात्र शख्सियत है जिनकी स्वीकार्यता देश के मानस पटल पर (कुछ कमिंयों के बावजूद भी) प्रभावशाली रूप से विद्यमान है। 'टाईम्सÓ पत्रिका ने भी अन्ना की इस स्वीकारिता को माना है। दूसरे अन्ना के लिए यह मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण होना चाहिए क्योंकि जब वे प्रभावशाली कठोर जनलोकपाल बिल की बात करते है। तो इसका यह मतलब नहीं होता है कि मात्र कड़क प्रावधान हो बल्कि उन प्रावधानों का कड़कता की उस सीमा तक कार्यान्वित भी हो। उसी प्रकार जब भारतीय दण्ड संहिता में अधिकतम सजा (केपिटल पनिसमेंट) फांसी है तो फांसी होनी भी चाहिए तभी इस प्रावधान का अर्थ है। चूंकि अफजल गुरू की फॉसी का मुद्दा देश की सुरक्षा व अस्मिता से जुड़ा मामला है तो अन्ना को इस मुद्दे पर अनशन पर बैठना चाहिए ताकि वे अनशन के दबाव के द्वारा महामहिम राष्ट्रपति को निर्णय लेने के लिए मजबूर कर अफजल को फांसी दिलाकर उन शहीद परिवारों जिनके सदस्यों ने संसद की सुरक्षा के लिए अपना सबकुछ बलिदान कर दिया को कुछ सांत्वना मिल सके और देश के नागरिको में भी एक संतुष्टि का भाव पैदा हो सके। वैसे भी भ्रष्टाचार से बड़ा मुद़दा है देश की अस्मिता व प्रतिष्ठा का। यदि देश ही नहीं रहेगा, देश का प्रजातंत्र ही नहीं रहेगा तो भ्रष्टाचार का मुद्दा बेमानी हो जाएगा। मैं अन्ना से अपील करता हूं कि जैसे वे २७ तारीख को लोकपाल मुद्दे पर अनशन पुन: करने वाले है उससे पहले वे इसमें अफजल गुरू की फांसी का मुददा जोड़ दे तो देश के करोड़ो लोगो की भावनाओं का सम्मान करेंगे। यदि वे मुझे भी अनुमति देंगे तो मैं उनके साथ आमरण अनशन पर इस मुद्दे पर बैठने को तैयार हूं। लेकिन क्या अन्ना गांधीवादी होने और अहिंसा पर चलने के कारण देश के लिए अपनी जांन न्यौछावर कर देने के अपने कथन के बावजूद अफजल मुद्दे पर इसलिए अनशन पर नहीं बैठेंगे क्योंकि इससे एक व्यक्ति की हत्या होती है? देश का अवाम इस बात को समझना चाहता है? वैसे भी अन्ना लोकपाल के मुद्दे पर ही रूकने वाले नहीं है बल्कि स्वयं उन्होने यह घोषणा की है कि उनका अगला निशाना 'राइट टू रिकालÓ होगा। अत: जब वे देश की विभिन्न मूलभूत समस्याओं को लेकर अंतिम सांस तक अनवरत लड़ाई लडऩे के विचार व्यक्त कर चुके है। तब वे अफजल के मुद्दे पर क्यो चूक रहे है जिसका जवाब सिर्फ अन्ना ही दे सकते है।
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(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

7 Responses so far.

  1. desh ke neta nahin chahte ki, ek mudda kam ho, unhen kuchh naa kuchh to chahiye ladne ke liye

  2. Very Nice post our team like it thanks for sharing

  3. sansad humle me keval humare javaan hi to shaheed hue the koi neta thode hi....jo itni jaldi fensla lenge!!!

  4. जी हाँ, एक अन्ना ने ही ठेका ले रखा है, देश की सारी मुसीबतों का ! बाकी को तो सर्दी में रजाई में दुबककर मूंगफली खाने की स्वतंत्रता मिली हुई है !

  5. हमारे देश का एक वयोवृद्ध बुज़ुर्ग कम से कम व्यवस्था से लड़ने के लिये संघर्ष तो कर रहा है और उसके लिये वह अनेक बार कठिन अनशन पर भी बैठ चुका है ! अन्य भारतीयों का भी कर्तव्य बनता है कि वे किनारे बैठ कर केवल तमाशा ही न देखें वरन अपने बलबूते पर अन्य ज्वलनशील मुद्दों को सामने लाएं और उनके समाधान ढूँढने के लिये संघर्ष करें ! सिर्फ अन्ना से ही क्यों अपेक्षा हो अगर इच्छाशक्ति हो तो हम सब अन्ना बन सकते हैं !

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