‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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शपथ-पत्र की सार्थकता वर्तमान स्थिति में !

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राजीव खंडेलवाल:
देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री एवं भाजपा के सर्वोच्च नेता श्री लालकृष्ण आडवानी ने काले धन के मुद्रदे पर अपनी पार्टी के सांसदों का स्वघोषणा पत्र देने का जो कदम उठाने की घोषणा की है उसका स्वागत किया जाना चाहिए। आज के युग में हर मुद्दे पर स्वस्थ परम्परा का निर्वाह न करते हुए मात्र राजनीति करने के उद्देश्य से कांग्रेस ने इस कदम का स्वागत और इसमें सहभागिता करने के बजाय इस आधार पर उनके इस अच्छे कदम को अस्वीकार कर दिया क्योंकि यह भाजपा के लौह पुरूष द्वारा कहा गया था। आज की राजनीति ही ऐसी हो गई है इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। कांग्रेस से क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि स्वर्गीय इंदिरा गांधी के बलिदान दिवस पर पूरे देश में शपथ दिलाई जाती है क्या वे कांग्रेसी होने के कारण समस्त गैर कांग्रेसीयो को शपथ लेने से इंकार कर देना चाहिए? लेकिन आडवानी जी के बयान ने शपथ-पत्र के औचित्य पर एक नई बहस का अवसर प्रदान किया है। 
                      वास्तव में हमारे देश के अनेक संवैधानिक संस्थाओं, कार्यपालिका न्यायपालिका मे पद ग्रहण से लेकर लोंकतंत्र का आधार स्तम्भ चुनावो में भाग लेने से लेकर अनेक कार्यो में शपथ की या स्वघोषणा की व्यवस्था है। वास्तव में इसकी क्यों आवश्यकता है और यह क्या है इसका अर्थ समझ लेना आवश्यक है। शपथ पत्र या स्वघोषणा एक प्रकार का आत्मानुशासन है जो कि एक नागरिक के विवेक पर इस आधार पर छोड़ा जाता है कि वह जो कुछ स्वघोषणा करेगा वह उसे स्वयं की और प्राप्त जानकारी के आधार पर जिसे वह सत्य मानता है उसके विचारों में सत्य है। इसे कानूनी जामा पहनाने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा १९९ एवं १९३ में दांडिक प्रावधान इसलिए किया गया है ताकि कानून का डर शपथकर्ता पर बना रहे और वह झूठा शपथ-पत्र न दे। लेकिन क्या आज शपथ-गृहिता की ऐसी स्थिति वास्तव में है। यह एक प्रश्र भी नही रह गया है बल्कि वास्तविकता इसके लगभग विपरीत है। इसलिए शपथ-पत्र को भी कानूनी रूप से झूठ बालने का एक आम हथियार माना जाने लगा है। 
                      देश में शपथ लेकर अनेक व्यक्तियों ने विभिन्न पदों पर काम किया है और मंत्री से लेकर न्यायपालिका पर कदाचार और भ्रष्टाचार के अनेक आरोप न केवल कई शपथ गृहिता पर लगे है बल्कि उन पर मुकदमें भी चले है और कुछ मामलों में सजा भी हुई है। लेकिन क्या सरकार यह बतलाने का कष्ट करेगी  कि कितने लोगो के विरूद्ध धारा १९९ के अंतर्गत झूठा शपथ पत्र देने के मामले में सरकार या पुलिस प्रशासन ने कार्यवाही की है। यह एक बहुत ही बड़ा विचारणीय मुद्दा है क्योंकि वास्तव में ऐसे विरले ही उदाहरण है जहा झूठा शपथ देने के आधार पर सार्वजनिक-संवैधानिक संस्थाओं पर बैठे किसी व्यक्ति को सजा हुई हो। इसलिए सामान्य रूप से जो व्यक्ति शपथ लेता है उसे कानून का डर नहीं होने के कारण वह शपथ लेने और न लेने में कोई अंतर नहीं मान रहा है। इसलिए जो आत्मानुशासन बने रहने के लिए 'डर' की आवश्यकता होनी चाहिए वह 'न' होने के कारण शपथ पत्र मात्र एक औपचारिकता रह गई है। आयकर वाणिज्यिक कर का वकील होने के कारण शपथ की उक्त आत्म अनुशासन को वही भावना को वर्तमान में मैनें करारोपण प्रावधानों में देखा है। शासन व्यापारियों की हितैषी बनकर प्रशासनिक खर्चो में कटौती कर स्व अनुशासन के आधार पर स्वकर निर्धारण को बढ़ाने का प्रयास कर रही है जिसमें वह एक हद तक सफल भी रही है क्योंकि राजस्व में वृद्धि की हो रही है। लेकिन कर चोरी की स्थिति से इंकार भी नहीं किया जा सकता है। इसलिए आज समय आ गया है कि हम वास्तव में शपथ-पत्र को गरीमा प्रदान करने के लिए कुछ ऐसे आवश्यक कड़े कदम उठाये ताकि लोग शपथ-पत्र और सामान्य कथन में अंतर को महसूस कर सके व तदानुसार उसे अपनाए भी।
 
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