‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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राष्ट्र विकास की हमारी अवधारणा

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हमारे प्राचीन गुरुकुलों में प्रारम्भ से ही पंच महाभूतों की दिव्यता का लौकिक और पारलौकिक बोध उत्कृष्ट गुरुओं के द्वारा किया जाता रहा है। शिष्यों को यह बोध सदैव रहता था कि मातृभूमिं के प्रति, अपने राष्ट्र के प्रति उनका कर्तव्य क्या है? कर्तव्य की बलिवेदी पर आरूड़ होने के लिए उनका हृदय सदैव ही मचलता रहता था। किन्तु गुरुकुल परम्परा निरंतर खण्डित मंडित होती गई सैकड़ो वर्षो से, विभिन्न आक्रांता, आतताइयों द्वारा राष्ट्र के पौरूष पुरूषार्थ को ललकारा गया। अनेकों बार भारतीय संस्कृति को कुचला गया। राष्ट्र की मौलिक, भावना को ठेस पहुचाई गई। राष्ट्र विकास की अवधारणा को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया। मजहब के आधार पर राष्ट्र को बाँटने का दुःसाहस किया गया। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण प्रतीत होता है कि स्वतंत्रता के पश्चात भी अपने देश के विकास का प्रारूप कैसा हो ? इसका विचार तक नहीं किया गया। विश्व पटल के अनेक राष्ट्रों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करने के उपरांत ज्ञात होता है कि उन राष्ट्रांे के दूरदृष्टा नेताओं ने उनके राष्ट्र की भौगोलिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक संरचना का ध्यान रखते हुए विकास की अवधारणा प्रस्तुत की किन्तु हमारे तथाकथित नेताओं ने बगैर राष्ट्र की मूल भावना और जीवन दर्शन को समझे अधिक उत्पादन के लिए कोई मंत्र विकसित दो, ताकि अधिक उपयोग किया जा सके। इस कारण बड़े-बड़े उद्योगों की कल्पना की गई, बड़ी-बड़ी मशीनों का उपयोग बढ़ा, जिससे भारत का जन आधारित उद्योग तेल आधारित उद्योग में बदल गया। आजकल(Gross National Product) को विकास का प्रतिमान माना जाता है। इसके कारण व्यक्ति का जीवन विकसित होता है। अर्थात भौतिक सुख सुविधाएँ मिलती है। इस गलत अवधारणा के कारण समाज में स्वयं का सुख जीवन का केन्द्र बिन्दु बनते जा रहा है। व्यक्तिवाद संकीर्णतावाद तीव्रगति से बढ़ रहा है। सभी किसी न किसी स्वार्थ के पीछे पड़कर पथभ्रष्ट हो रहेहै। सच्ची सद्भावना से राष्ट्र आराधना करने वाले बिलकुल विरले ही है। सर्वसाधारण समाज स्वार्थ के परे, देश या राष्ट्र का विचार भी नहीं करता। इससे सहजता से ज्ञात होगा कि जिस पद्धति से आवश्यक व्यक्तिगत गुण विकास होता है उस पद्धति से कार्य न होने से ही समाज रचना योग्य रीति से करना संभव नहीं है। हम अपने प्रयत्नों का विचार करे तो दिखाई देगा कि सब प्रकार के संकटो से पृथक रखकर व्यक्तिगत गुणों के सर्वांगिण विकास जैसी योजना अपनी कार्य प्रणाली में दिखाई पड़ती है। वैसी अन्य कहीं भी नहीं है। व्यक्ति, समाज, सृष्टि एवं पर्यावरण में संतुलन से होने वाला विकास ही हिन्दू चिन्तन का आधार है।
जन, जानवर, जंगल एवं जमीन का संतुलित एवं समन्वित विकास ही हिन्दू चिंतन का आधार है। इस सफलता के मानवीय दृष्टिकोण का समुचित गठन परम आवश्यक है। समाज को उचित जीवन दर्शन से अनुप्राणित करना होगा। लोगों में यह क्षमता होनी चाहिए कि आत्मकेन्द्रित प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा सकें और स्व-बांधवों के सुख-दुख से एकाकार हो सकें। इसके लिए जागृत करना होगा, आत्मानुशासन। केवल उसी से समरसतापूर्ण समायोजन संभव है। राष्ट्र वैभव के सर्वतोमुखी विकास हेतु सहकारी प्रयास की अभिप्रेरणा भी उदिप्त करनी होगी। इस प्रकार ऐसी सामाजिक संरचना खड़ी हो जाए, जिसमें व्यक्तियों को जीवन के सर्वाेच्च ध्येय के सम्बंध में सम्यक दृष्टि प्राप्त हो, समस्त समाज के प्रति प्रेम और आत्मियता की भावना छलकती हो, तथा आत्मानुरूप होने का भाव विद्यमान हो। जैसे शरीर में अन्नमय कोष, प्राणमय कोष मनोमय कोष्, विज्ञानमय कोष, और आनंदमय कोष को विकास से ही व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास होता है। अन्नमयकोष दृश्य होता है। शेष चारो अदृश्य होते है। हमारे विकास की अवधारणा मात्र भौतिक तक सीमित न होकर, शाश्वत जीवन मूल्यों के उत्कर्ष के साथ खुली मिली हैं। जैसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने विकास के लिए हर एक हाथ को काम, हर खेत को पानी का विचार दिया, यही हमारे समग्र विकास का आधार है। हमें आणविक ऊर्जा के स्थान पर सौम्य ऊर्जा जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जैव ऊर्जा पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। सौम्य ऊर्जा के उत्पादन और उपयोग से सभी समस्याएँ समाप्त हो जायेगी। राष्ट्र के सर्वांगिण विकास के लिए कृषि को उद्योग के रूप में विकसित करना पड़ेगा। पश्चिम का विकास सकेन्द्रय (ब्वदबमदजतपब) है, इस रचना में व्यक्ति बीच में आता है। हमारे यहाँ विकास सर्पिल (ैचपतंस) है। जहाँ सभी ईकाईयाँ एक दूसरे से जुड़ी रहती है। हमारे यहाँ विकास की अवधारणा धर्म आधारित है, अर्थ आधारित नहीं है। इस अवधारणा में किसी का शोषण नहीं होता है। सभी में एक ही परमेश्वर का अंश होता है। हमारे यहाँ धर्म, अर्थ, काम मोक्ष से युक्त रचना है। अर्थ और काम को धर्म एवं मोक्ष के बीच रखा गया है। हमारे विकास की अवधारणा समग्र विकास, सम्यक विकास एवं सुमंगलम विकास की अवधारणा है। इसमें व्यक्ति से पर्यावरण तक सभी की सुरक्षा होती है। इसी को एकात्म मानवदर्शन कहते है। यह दर्शन केवल भारत के लिये नहीं बल्कि समग्र ब्रम्हाण्ड के लिये है। हिन्दू विकास चिन्तन का सूत्रपात परम पूज्यनीय श्री गुरूजी ने किया। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने इसे एकात्म मानववाद कहा। समग्र मानवता का कल्याण इसी चिंतन के आधार पर होगा।
 
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