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‘दीदी’ के बयान पर इतना हाय-तौबा क्यों?

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राजीव खण्डेलवाल:
                    विगत दिवस पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बेनर्जी का यह बयान आया कि ऐसे अनेक उदाहरण है जिससे पता चलता है कि अदालत में पैसे के बदले मन मुताबिक फैसले दिये जाते है। इस बयान पर पूरे देश मेें हाय-तौबा मचा। देश के कई संगठनों सहित बुद्धिजीवियों ने इसकी आलोचना की। कुछ लोगो ने इसे न्यायपालिका की अवमानना बताया और कानूनी कार्यवाही भी प्रारम्भ की। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी इसका संज्ञान लिया है। प्रश्न यह है कि हम कितने थोथले व सतही हो गये हैं कि एक बयान और एक घटना पर अक्सर संस्थागत अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देते है। 
                    लोकतंत्र के तीन संवैधानिक स्तम्भ है विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका चौथा ‘स्वयं-भू’ स्तंभ ‘प्रेस’ है जो उपरोक्त तरह के समाचारों को प्रसारित करता है। स्वयंभू इसलिए कि संविधान में उसकी कोई लिखित व्यवस्था नहीं है लेकिन लोकतंत्र के लिए उसे एक आवश्यक अंग माना गया है इसलिए उसे चौथे स्तम्भ के रूप में स्वीकार किया गया। बात जब भ्रष्टाचार की है जिसका उल्लेख ममता ने न्यायालय के निर्णयों में किया है। भ्रष्टाचार लोकतंत्र के चारो स्तम्भ में व्याप्त है इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है। कम या ज्यादा इस पर बहस हो सकती है। जब हम संसद व कार्यपालिका जो कि एक संवैधानिक संस्था है पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते है तो उसकी अवमानना का प्रश्न न्यायपालिका समान क्यों नहीं पैदा होता है जबकि वह भी एक संवैधानिक संस्था है। क्या इसलिए कि उन संस्थाओं के भ्रष्टाचार को हमने अंगीकार कर लिया है? जहां तक न्यायपालिका के भ्रष्टाचार का प्रश्न है नीचे से उपर तक उसके रूप हमको देखने को मिले है और हाल ही में उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश हो पर राजनेताओं को जमानत देने के मामले मेें कार्यवाही भी की है। यह बात सही है न्यायपालिका का भ्रष्टाचार अन्य तीनों स्तम्भों की तुलना में बहुत कम है लेकिन क्रमोत्तर वह कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। खासकर निम्न न्यायालयों में आम नागरिकगण पक्षकारगण खुलेआम देखते है और उससे गुजरते है। इसलिए यदि ‘दीदी’ का बयान न्यायालय की अवमानना की श्रेणी में आता है तो इसी तरह केजरीवाल का बयान संसद की अवमानना की श्रेणी में क्यों नहीं आना चाहिए। उसपर क्यों कार्यवाही अभी तक नहीं की गई। न्यायालय ने स्वंय संज्ञान लेकर उसपर क्यों कार्यवाही नहीं की। इसी प्रकार प्रशासनिक तंत्र कार्यपालिका जिस पर भ्रष्टाचार के आरोप आम हो गये है उसकी अवमानना की भावना तो जनमानस में पैदा ही नहीं होती है। इसलिए किसी एक बयान को एक घटना को संस्था के अस्तित्व से जोड़कर उसे कमजोर नहीं करना चाहिए बल्कि उक्त घटना या बयान की सच्चाई का पता लगाकर तदानुसार उसपर कार्यवाही की जाये तो संस्थागत जो कमजोरिया बढ़ रही है वे कम होगी और सुदृड़ता की ओर बढ़ेंगी।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)
 
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