‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 की धारा 6 में संशोधन से उत्पन्न खतरे!

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               आज जब मैं एक क्लाइंट की अचल सम्पत्ति की समस्या के संबंध में हिन्दू सक्सेशन एक्ट का अध्ययन कर रहा था तब यह महसूस हुआ कि उक्त धारा में जो संशोधन किया गया है उसके दूरगामी प्रभाव क्या हो सकते है। जब मैं अपने सहयोगी वकील के साथ इस सम्बंध में चर्चा कर रहा था तो उनका यह वाक्य क्या आप हिन्दू है? हिन्दुत्व पार्टी को बिलंाग करते है और इस इश्यू पर आप लोगो ने कोई स्टैण्ड नहीं लिया। इस एक वाकये ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। आईये पहले हम उक्तानुसार उक्त संशोधन के प्रभाव के परिणाम का आकलन करे तभी हम उसकी सही विवेचना कर सकते है।  
               धारा 6 में किये संशोधन के बाद और उच्चतम न्यायालय के इस सम्बंध में हुए निर्णय से यह स्थिति स्पष्ट हो गयी है कि अभिभावक द्वारा छोड़ी गई अचल सम्पत्ति पर लड़के व लड़कियां दोनो वैध उत्तराधिकारी होकर बराबरी के उत्तराधिकारी है। पुरूष व महिला में कोई विभेद नहीं किया जाना चाहिए व महिलाओं व पुरूष के बराबर अधिकार प्राप्त है यह कानूनी मान्यता है लेकिन सामाजिक मान्यता भी होनी चाहिए। इसीलिए वर्तमान में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की बराबरी की भागीदारी के लिए सरकारी व गैरसरकारी स्तर पर तेजी से प्रयास किये जा रहे जिनके परिणाम भी आ रहे है। लेकिन इसके क्या दुष्परिणाम होने की संभावना है उपरोक्त संशोधन सें उत्पन्न स्थिति के प्रभाव के साथ इसे देखना व विवेचना करना आवश्यक है। मूलतः महिलाओं के बराबर के अधिकार की स्थिति कोई गलत नहीं है। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब हम अपने समाज में गठित पारिवारिक स्थिति की ओर देखते है। 
               सामान्य रूप से हमारी सामाजिक प्रणाली में यह चलन सदियों से चला आ रहा है कि सम्पत्ति पर पिता की मृत्यू के बाद उनके जितने पुत्र उत्तराधिकारी होते है उनका नाम राजस्व रिकार्ड में चढ़ाये जाते है व उनको बराबरी का हिस्सा मिलता है। जिस कारण लड़कियों का हिस्सा भी लड़को को मिल जाता है। जो लड़कियां अविवाहित होती है उनका नाम भी सामान्यतः राजस्व रिकार्ड में नहीं चढ़ता है। यदि चढ़ता भी है तो वास्तविक अर्थ में वे हिस्सेदार होती नहीं है और न ही उनमें अपने हिस्से लेने की कोई भावना उत्पन्न होती है। लड़कियों की शादी होने के बाद भी उनका हिस्सा कानून के अनुसार तो बना रहता है लेकिन वे भी सामान्य रूप से अपने उस अधिकार का कभी उपयोग नहीं करती है और वास्तविक धरातल में वे अपना अधिकार छोड़ देती है या वह छोड़ा हुआ सरीका ही होता है क्योंकि वे अपने जीवन में इस अधिकार का उपयोग शायद ही कभी करती हो। यह स्थिति पूर्व में जब लड़कियों में पढ़ाई का प्रतिशत कम था परिवार रूढ़ीवादी परिस्थितियों से ग्रस्त होने के कारण विद्यमान थी। लेकिन धीरे-धीरे आज शिक्षा के कारण महिलाओ की प्रत्येक कार्य में बराबरी की भागीदारी का अभियान चलाने के कारण महिलाएं भी घर से बाहर निकलने लगी, नौकरी, सामाजिक कार्य में योगदान इत्यादि माध्यम से सार्वजनिक रूप से कार्य करने आगे आ रही है। तब भी हमारी जो पारिवारिक संरचना है उसमें सामान्य रूप से आज भी पढ़ी लिखी लड़कियां भी सम्पत्ति में अपने अधिकार का उपयोग प्रायः नहीं करती है। चुंकि आज कानून में स्पष्ट रूप से उक्त अधिकारो की यह उत्तराधिकारी की व्यवस्था की गई है इसलिए इसके दुरूपयोग होने की सम्भावनाएं भी बढ़ती जा रही है। महिलाओं को जो विशेषाधिकार दिये जा रहे है उसके दुष्परिणाम में ही अब हमाने सामने आने लगे है। आज हम समाचार पत्रों के या अपने आसपास कई बार देखते है कि महिलाएं बलातकार, छेड़छाड़, मोलेसाटी आदि यौन अपराध मामले में उनके दिये विशेषाधिकार का दुरूपयोग या तो अपने आत्मा सुरक्षा के लिए (सहमति होते हुए पकड़े जाने पर) या ब्लेकमेलिंग के लिये करने लगी है। हाल मे ही बैतूल में चर्चित एक प्रकरण इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
               सामान्य स्थिति में जब सम्पत्ति का बटवारा होता है उसी समय लड़के और लड़कियों में बराबर बटवारा किया जाए तो उसमें कोई समस्या नहीं है। लेकिन आज भी वर्तमान परिस्थितयों में सामान्य रूप से लड़कियों को हिस्सा नहीं दिया जाता है और खासकर शादी शुदा महिलाओं को तो दिया ही नहीं जाता है। लेकिन ससुराल में लड़कियों जाने के पश्चात ससुराल पक्ष के बनते बिगड़ते रिस्तों के कारण लड़कियां (एवं उनके उत्तराधिकारी) अपने पति एवं ससुराल पक्ष के दबाव के बाद 10-20-50 या इस से भी अधिक साल बाद भी आपने उक्त वास्तविक सम्पत्ति के अधिकार की मांग कर सकती है। तब उन वैध उत्तराधिकारी लड़को को जिन्हे संम्पत्ति उस समय मिली थी उसमें से उनको हिस्सा देने में दिक्कते पैदा हो सकती है। चुंकि उस समय उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत हो यह जरूरी नहीं होता है। इसलिए इस स्थिति मं सुधार लाने के लिये यह आवश्यक है कि जब लड़कियों की शादी हो जाती है तब उन्हे सम्पत्ति के अधिकार से वंचित किया जाना चाहिए। यदि शादी के कारण वे एक अधिकार से वंचित हो रही होती है तो दूसरी तरफ शादी के कारण वे अपने पति की सम्पत्ति की अधिकारी भी हो जाती है। अंतर सिर्फ इतना है कि उन्हे यह अधिकार पति की मृत्यु के बाद ही प्राप्त हो सकता है। यदि खानदानी सम्पत्ति पति को उत्तराधिकार में प्राप्त हुई है तो उस सम्पत्ति पर पत्नि को शादी के दिन से ही अधिकार प्राप्त हो जाता है। वैसे भी एक अभिभावक लड़की की शादी के समय दहेज के रूप में लड़के के अधिकार का अतिक्रमण करते हुए लड़की के सम्पत्ति के वैधानिक हिस्से से ज्यादा ही सामाजिक सुरक्षा एवं प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुये देता है। इस तरह सामान्यतः वह अपने दायित्व का पूर्ण करना भी महसूस करता है। विकल्प में यदि उक्त सुरक्षा तकनीति रूप से उचित नहीं लगता है तब इसके लिये एक समय सीमा का प्रावधान अवश्य किया जाना चाहिए ताकि उक्त समय सीमा के बाद सम्पत्ति के वैध पुरूष प्रतिनिधी पर तलवार न लटकती रहे और वे निश्चिंतता का जीवन जी सके अन्यथा सम्पत्ति पिता की मृत्यू के बाद उनके वैध वारिस जिन्हे सम्पत्ति प्राप्त होती है न केवल उन पर बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी तलवार लटकती रहेगी क्योंकि जब तक महिला उत्तराधिकारी अपने अधिकार को छोड़ नहीं देती है तब तक यह स्थिति बनी रहेगी। इससे सबसे बड़ी आशंका जो होगी वह परिवार टूटने की होगी, पारिवारिक झगड़े बढ़ेंगे। परिवार के बीच जो परस्पर समरसता बनी हुई है इसके भी नष्ट होने की सम्भावना बनी रहेगी।
               यदि इस स्थिति में हमने गंभीरता से विचार नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब इसके दुष्परिणाम इस सीमा तक हो सकते है कि हमें पुरूषो की सुरक्षा के लिए वहीं अभियान  चलाना पड़ेगा जो वर्तमान में महिलाओं के लिए किया जा रहा है अतः प्रकृति का यह साफ संदेश है, संतुलन बराबर बना रखे।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

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  1. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार २६/६ १२ को राजेश कुमारी द्वारा
    चर्चामंच पर की जायेगी

 
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