‘‘सच्चाई-निर्भिकता, प्रेम-विनम्रता, विरोध-दबंगता, खुशी-दिल
से और विचार-स्वतंत्र अभिव्यक्त होने पर ही प्रभावी होते है’’
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‘‘रामजी’’ से दूर रहो, लोग सांम्प्रदायिक, समझेंगे?

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                                         मैं बहुत छोटा सा था तभी से मैने अपने बड़े-बूढ़ो को एक-दूसरे से मिलते समय सम्बोधन में ‘‘जय रामजी की, राम-रामजी’’ कहते हुए सुना है। मेरे पिता की मेरे पास आज सिर्फ एक ही विरासत है और वो है ‘‘राम‘‘ नाम। इस विरासत पर मैने कभी अपनी निज स्वार्थ या जरूरतो को तरजीह नहीं दी। ‘‘जय रामजी की या राम-राम’’ कथन ‘हाय-हैलो’ जैसा सम्बोधन न होकर हमारे गौरवशाली इतिहास और सांस्कृतिक विरासत का ऐसा प्रतिक है जो हर भारतीय के कण्ठ में रचा-बसा है और हम जब भी किसी से मिलते है, अनायास ही मुह से निकल जाता है। ‘‘जय रामजी की’’ सत्य पे असत्य, राक्षसो पर देव, धर्म पर अधर्म की जीत का हमें स्मरण करके सदआचरण के लिए संकल्पित होने हेतु प्रेरित करता है। ‘‘राम’’ तो प्रातः उठने से लेकर सोने तक मेरे साथ एकांगी होकर सदैव साथ होता है। ’’राम’’ भारतवंशी ही नहीं दुनिया के प्रत्येक मनुष्य के लिए अपने शरीर का तीसरा भाग है। शरीर का दाया भाग स्त्री, बाया भाग पुरूष और तीसरा अदृष्य भाग ‘‘राम’’ एक चरित्र, आदर्श, जीवनचर्या, संस्कार, संस्कृति, परम्परा, धर्म और हमारी आत्मा के प्रतीक रूप में। अगर हमें कोई कहे की ‘‘जय रामजी की’’ न कहा करो लोग साम्प्रदायिक कहेंगे। तो आप ही सोचिये हमारी अंतर्रात्मा की प्रतिक्रिया क्या होगी?

’’जय रामजी की’’ ना कहा करो-
                            हम नित प्रातः 5.00 बजे सुबह योगऋषि स्वामीं रामदेव बाबा की कृपा से उनके शिष्य द्वारा संचालित योग कक्षा में योग करते है। मेरे सामने एक समय एक तब एक विडम्बना खड़ी हो गई जब मेरे द्वारा ‘‘जय रामजी की‘‘ उद्बोधन पर मेेरे योग प्रशिक्षक ने मुझे यह कहकर उद्बोधित किया कि ‘‘सार्वजनिक जीवन में ‘जय रामजी की‘‘ शब्द का उपयोग न किया करो साम्प्रदायिक लगता है। उस समय मेरे शरीर में एक दम करंट दौड़ गया मुझे ऐसा लगा मानो मुझे स्वास रोकने के लिए कह दिया हो। एक छण में मेरे मन में हजारो सवाल खड़े हो गये, मैं सोचने लगा कि क्या यह सम्भव है कि मैं ’श्रीराम’ को छोड़ पाऊंगा? मैं तो अपने आदत के चलते अपने मुस्लिम और ईसाई भाईयों को भी इसी शब्द से उद्बोधित करता हूं उन्हे कोई असहजता महसूश नहीं होती। यहां ‘‘योग शिक्षक’’ को इस शब्द में ‘‘साम्प्रदायिकता’’ जैसा ऐसा क्या दिखा? कहीं योगऋषि स्वामीं रामदेवजी के किसी नये अभियान के तहत उनके द्वारा दिया हुआ निर्देश तो नहीं है? मेरे दिल में आया की आज से ‘सलामवालेकुम‘‘ या गुड मार्निंग बोलू जो साम्प्रदायिक न लगे पर तब तो मैं चुपचाप अपनी कसक को दबा गया। पर सांय को जब टीवी देखी तो उक्त घटना समझ आयी। वास्तव में बाबा जी अपने अभियान में सबको पूर्ण रूप से स्वस्थ करने, और राजनीति को शुद्ध कर’’ देश निर्माण में जुटे है। उनके इस अभियान में भारी संख्या में मुस्लिम दर्मावलंबी भी सहयोग कर रहे है। उक्त घटना के एक दिन पूर्व बाबा की सभा में मुस्लिम समुदाय का एक राष्ट्रीय नेता स्वामींजी के कार्यक्रम में शामिल हुआ था। स्वामीं जी के अभियान में मुस्लिम समुदाय की भागीदारी देखकर ही शायद हमारे योग शिक्षक के मन में आया की ’’श्री राम’’ हिन्दू समुदाय से सबंधित थे इसलिए ‘‘जयरामजी की‘‘ शब्द का इस्तेमाल साम्प्रदायिक लगेगा। ऐसा हमारे सभ्य सुशिक्षित और योग्य ‘‘योग शिक्षक‘‘ के मन में आया बड़ी विडम्बना है।
                              हमारे द्वारा तथ्य साफ करने और अपने विवेक और अनुभव के बाद अब हमारे योग शिक्षक तो अब सामान्य हो गये, अब उन्हे ‘राम’ से कोई परहेज नहीं है। अब मैं उनका चहेता योगी विद्यार्थी हूं।
’’हिन्दू-सम्मेलन में ‘राम‘ को न बुलाओं’’-
                                          दिसम्बर मास में पूरे देश में ‘‘हिन्दू महासम्मेलन धर्म-सभा और यज्ञ’’ होने जा रहे है। जिसका उद्वेश्य हिन्दू समाज पर विभिन्न जांच एजेंसियों के माध्यम से लगाये जा रहे मनगड़त आरोप और अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण हेतु समाज में जनजागृति लाना है। जिसमें हमारे जिले के एक तहसील का प्रभार मेरे भी कांधे पर है इसीकी तैयारियों के लिए तहसील में आयोजन समिति के प्रमुख हेतु श्रीराम कथाओं, रामनवमीं, यज्ञ, प्रभात फेरी, भण्डारों जैसे विभिन्न धार्मिक आयोजनों के अनुभवी व्यक्ति को दायित्व सौंपा गया। उनका नाम तो नहीं लूंगा लेकिन हमने उनका दूसरा नामकरण मनमोहनजी के रूप में किया है। उनके अनुसार उनके साथ कोई बाधा नहीं हैं और इस पूनित कार्य में समाज का प्रत्येक वर्ग उनके साथ काम करेगा।
                                    तीसरी ही बैठक में न जाने क्या परिवर्तन हुआ तो जब भाई साहब से चल रहे कार्य का विवरण जानना चाहा तो वे उठे और कहने लगे कि हो रहे ‘‘हिन्दू महासम्मेलन‘‘ की कार्यसमिति का संचालन तो मैं करना जारी रखूंगा। पर इसका संचालन मैं तभी अच्छे से कर पाऊंगा जब इसमें लिए जा रहे विषय परिवर्तित कर दिया जाए। उनका कहना था कि उनके साथ कांग्रेसी भी है जो ‘श्रीरामजी‘ से सम्बंधित प्रत्येक आयोजन में सहभागिता तो करते है पर पार्टी के शीर्ष में ‘श्रीराम‘ और उससे संबंधित मुद्दो पर विरोधी रणनीति के कारण वो मंदिर बनाने से सम्बंधित किसी विषय को स्वीकार नहीं करेंगे। अब यहां भी मेरे सामने अजीब स्थिति आ गई।
                                        ‘‘यह तो वहीं बात हुई कि हम चिल्ला-चिल्लाकर यह कह सकते है कि हम अपने मॉं बाप को बहुत चाहते है पर उन्हे रहने के लिए अपने साथ एक कमरा नहीं दे सकते, एक बिस्तर नहीं बिछा सकते।‘‘ श्रीराम की पूजा तो कर सकते है पर उनके जन्मस्थान पर एक मंदिर निर्माण की सहमति नहीं दे सकते। इन भाई साहब को सद्बुद्धि आये इसका उपाय भी हमारे पास था हमारे साथ कुछ स्थानीय जागृत मुस्लिम भाई शामिल हुए जो स्वेच्छा से इस पूनित कार्य को तन-मन-धन से आगे बढ़ाने के लिए सहर्ष तैयार हो गये। वहां यह तो साफ हो गया कि यदि इस मुद्दे में राजनीति बीच में न हो तो मंदिर तो हमारे मुस्लिम भाई ही बना देंगे।
 
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